हुज़ूर मालिक साहब का जन्म 27 सितम्बर 1909 को मध्य प्रदेशांतर्गत मुरैना जिले के सेंथरा ग्राम में एक धर्मपरायण क्षत्रिय परिवार में हुआ था । मालिक साहब केे प्रारम्भिक जीवन की घटनाओ से स्पष्ट होता है कि किशोर वय तक आते आते उनका साधक जीवन प्रारम्भ हो गया था । आध्यात्मिकता की ओर वे ऐसी तीव्रता से अग्रसर हुये थे कि उनके जीवन प्रवाह में उस बिंदु को ज्ञात करना , जब वे आध्यात्मिक जीवन की ओर मुड़े थे , असम्भ्व जान पड़ता हैं । वे सहज स्वाभाविक ही साधन पथ पर बढ़े थे , किसी घटना विशेष के परिणामस्वरूप नहीं । डॉ. क्रांतिकुमार ने ऐसे ही अनेक कारणो से मालिक साहब को जन्मसिद्ध महापुरुष माना है । उनके जीवन के अनेक घटना प्रसंग ऐसे है जो इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं ।
मालिक साहब की शिक्षा ग्वालियर दुर्ग स्थित सरदार्स स्कूल (वर्तमान में सिंधिया स्कूल) में सम्पन्न हुई । उसके बाद वे तत्कालिन ग्वालियर राज्य के राजस्व विभाग में नायब तहसीलदार के पद पर नियुक्त हुए और तदनन्तर निरंतर वर्धमान जीवन संघर्ष , पारिवारिक उत्तरदायित्व एवंं शारीरिक अस्वस्थता की निदारुण झंझा के बीच जिस अप्रतिम साहस , उत्साह तथा तन्मयता के साथ उन्होंने अपनी साधना की ज्योति को प्रज्जवलित रखा तथा अनेकानेक मुमुक्षु जनों का पथ प्रकाशित किया वह उनके जैसे स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी के लिये ही सम्भव था ।
सन् 1923 में हुज़ूर मालिक साहब को परमहंस लोचनदास जी महाराज का आशीर्वाद प्राप्त हुआ । मालिक साहब ने कहा है कि परमहंस ने उनको ध्यान की एक विशिष्ट विधि का निर्देश किया था जिसके फलस्वरूप कालांतर मे उनको बहुत लाभ मिला । इस घटना के कुछ समय बाद ही मालिक साहब ने सुरत - शब्द योग परम्परा के समर्थ संत हुज़ूर दातादयाल से ' उपदेश ' ग्रहण किया ।
मालिक साहब के जीवन में हुज़ूर दातादयाल का आगमन एक ऐसे दिव्य प्रकाश्पुंज का आविर्भाव है , जिसने उनके साधना - पथ के कण - कण को अपने भास्वर तेज से अभिमंडित कर दिया है । यह एक ऐसी अवस्था है जहांं मालिक साहब और उनके श्रीगुरु को पृथक - पृथक देख पाना सम्भव नहीं है - ' सिन्धु समाना बुंद में , जाने बिरला कोय ' । बहुत आगे चलकर अर्थात् सन् 1983 में इस घटना की पुनरावृत्ति की एक विलक्षण और कल्पनातीत झलक श्रीमद् कृपालसिंह जी के माध्यम से देखने को मिलती है अध्यात्म निकेतन में हुज़ूर मालिक साहब के देह - त्याग के अनन्तर , 14 फरवरी 1983 को पावन शरीर के अग्नि संस्कार के समय । इस समय यहां पराशक्ति साकार हो उठी जिसको प्रत्यक्ष देखा और सुना जा सकता है ।
अनन्त - अनन्त करुणामय श्री गुरुदेव का वात्सल्य , उनका अनुग्रह पर्वत से उतरते हुए वेगवान जल - प्रवाह सा उमड़ता हुआ स्पष्ट देखने को मिलता है । श्रीगुरुशक्ति प्रत्यक्ष होकर सबको संदेश और निर्देश देती है । यह अभूतपूर्व है , विलक्षण है , कल्पनातीत है , और ऐसा है जो शब्दों की सीमा से परे है । यहां स्थानाभाव है अतः इस संकेत मात्र के बाद हम आगे चलते है ।
संत कृपाल सिंह जी के जन्म के कुछ समय बाद ही हुज़ूर मालिक साहब ने सरकारी सेवा से त्याग पत्र दे दिया था । सन् 1958 में मालिक साहब को उनके महान गुरु शक्तिपाताचार्य परमसमर्थ श्रीमद् योगेंद्र विज्ञानी जी महाराज ने सिद्धयोग परम्परा में श्री गुरुपद पर प्रतिष्ठित किया । अंत में श्रीगुरुपद का भार अपने सुयोग्य शिष्य श्री कृपाल सिंह जी को सोंपकर 12 फरवरी सन् 1983 को मध्याह्न में लगभग 11:50 बजे हुज़ूर मालिक साहब ने अपनी लोक - लीला सँवरण की ।
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